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Thursday, August 09, 2012

Baalkaand - Part I

बालकाण्ड - १

 

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥१॥
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥३॥
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥४॥
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥५॥
बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥१४(घ)॥
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥१७॥




चौ.
सादर सिवहि नाई अब माथा। बरन‍उँ बिसद राम गुन गाथा॥
संबत सोरह सै एकतीसा। कर‍उँ कथा हरि पर धरि सीसा॥२॥
नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥३॥
असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥४॥

दो.
मज्जहिं सज्जन बृंद बहु पावन हरजू नीर।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥३४॥


चौ.
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥४॥
एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गय‍उ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥१॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनाय‍उ। कहि बसिष्ठ बहु बिधि समुझाय‍उ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥२॥

दो.
कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥१८८॥


चौ.
सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥३॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥४॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सक्ल लोक सुख संपति छाए॥३॥

दो.
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥


चौ.
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्य दिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥१॥
सीतल मंद सुरभि बह बा‍ऊ। हरषित सुर संतन मन चा‍ऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥२॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥


छं.

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥१॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भय‍उ प्रगट श्रीकंता॥२॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहा‍ई मातु बुझा‍ई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥३॥
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥४॥

दो.

गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद ॥१९४॥


चौ.
कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सक‍इ सारद अहिराजा॥१॥
अवधपुरी सोह‍इ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आइ जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥२॥
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़‍इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥३ (क)॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥४ (ख)॥

दो.
मास दिवस कर दिवस भा मरम न जान‍इ कोइ।
रथ समेत रबि थाके‍उ निसा कवन बिधि होइ॥१९५॥


चौ.
कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥१॥
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥३॥
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥४॥

दो.

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥१९७॥


चौ.
बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥१ (क)॥
भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥२॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥३ (ख)॥
करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥४ (क)॥

दो.
कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥२०४॥



मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवहु सुदसरथ अचर बिहारी॥


चौ.
यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥१॥
जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥२ (क)॥
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥३॥
एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥४ (क)॥

दो.
बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सर‍ऊ जल गए भूप दरबार॥२०६॥


चौ.
तब मन हरषि बचन कह रा‍ऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु का‍ऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लाव‍उँ बारा॥४॥
असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आय‍उँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥५॥

दो.
देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥२०७॥

सो.
पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥२०८ (ख)॥


चौ.
अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥१॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥२(क)॥
चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥३॥
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥४(क)॥

दो.
आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥२०९॥


चौ.
प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥१ (क)॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥२॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँधारा।
मारि असुर द्‌विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥३॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥५॥
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥६॥

दो.

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥२१०॥


छं.
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवै बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥१॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥४॥


चौ.
चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥१ (क)॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥२॥
पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥३ (क)॥

दो.
सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥


चौ.
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥१ (ख)॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥४ (क)॥

दो.
बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥२२७॥


चौ.
चहुँ दिसि चित‍इ पुँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥१॥
संग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं॥२ (क)॥
एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं दो‍उ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥४॥
सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥२ (क)॥
तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लख‍इ न कोई॥४॥

दो.
सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥२२९॥


चौ.
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥१॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥२॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥३ (क)॥
सुंदरता कहुँ सुंदर कर‍ई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बर‍ई॥४ (क)॥

दो.
सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥२३०॥

  चौ. तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥ पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिर‍इ फुलवाईं॥१॥
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥२॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धर‍इ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥३॥

दो.
करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि कर‍इ मधुप इव पान॥२३१॥


चौ.
चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥१॥
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥२॥
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥३ (क)॥
लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥४ (क)॥

दो.
लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दो‍उ भा‍इ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगा‍इ॥२३२॥


चौ.
धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥१॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दो‍उ रघुसिंघ निहारे॥२ (क)॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भय‍उ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आवउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥३॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनप‍उ पितुबस जाने॥४ (ख)॥

दो.
देखन मिस मृग बिहग तरु फिर‍इ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़‍इ प्रीति न थोरि॥२३४॥